ग्रामीण महिलाओं का स्वरोजगारः रेशम उद्योग

ग्रामीण महिलाओं का स्वरोजगारः रेशम उद्योग

डॉ बालेन्दु मणि त्रिपाठी,

अतिथि सहायक प्राध्यापक, विषय भूगोल, शासकीय नवीन महाविद्यालय, पेन्ड्रावन, जिला दुर्ग, छत्तीसगढ़

सारांश

भारत जैसे विकासशील देश में महिलाओं के विकास के बिना ‘‘विकास’’ संभव ही नहीं हो सकता हैं। भारत की जनसंख्या का लगभग 72 प्रतिशत जनाधार ग्रामीण हैं अर्थात भारत अब भी ग्रामों में ही बसता है जहां से कृषि आधारित उद्योगों के माध्यम से न केवल भरण-पोषण का आधार मिलता है, अपितु रोजगार का सुलम साधन भी मिलता है। भारत के कुछ राज्यों में विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं के सामने ‘‘बेरोजगारी’’ की विकट समस्या हैं। न तो वे खेती कर सकती हैं। न ही आवागमन के अभाव में कोई व्यापार कर सकती हैं। ऐसे में रेशम कीटपालन एक सशक्त विकल्प के रूप में महिलाओं को स्वरोजगार का साधन उपलब्ध हैं। भारत के लगभग 50,000 गांवों में लगभग 60,00,000 लोग रेशम कीटपालन व रेशम उद्योग के माध्यम से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। इनमें से कुछ परम्परागत राज्य हैं जैसे उत्तर भारत में जम्मू कश्मीर दक्षिण में कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश तमिलनाडु पूर्व में पश्चिम बंगाल, एवं पश्चिम में राजस्थान व गुजरात जहां रेशमी वस्त्रों का निर्माण अपनी विभिन्न कलाकृतियों से किया जाता हैं। इनमें 70-80 प्रतिशत भागीदारी महिलाओं की स्वरोजगार के रूप में होती हैं। रेशम बीजोत्पादन, रेशम कीटपालन, रेशम धामाकरण, रेशम निर्माण सामग्री (रेशम उद्योग) में कार्यकर्ता अथवा श्रमिक से लेकर वैज्ञानिक तक का कार्य महिलाएँ ही करती हैं। रेशम उद्योग एक ऐसा कुटीर उद्योग हैं जिसमें हर वर्ग की विशेषकर ग्रामीण महिलाओं को ‘‘स्व-रोजगार’’ आदि का सामान अवसर हैं। कुछ क्षेत्रों में ये महिलाएँ पुरूषों की तुलना में रेशम प्रौद्योगिकी में अपनी निपुणता साबित कर चुकी हैं। पुरुष प्रधान भारत देश में महिलाओं को आत्मनिर्भर एवं अपने आत्मविश्वास से जीवन यापन करने के लिए रेशम उद्योग एवं रेशम कीटपालन एक सही दिशा में सही कदम हैं व ‘‘स्वरोजगार’’ का साधन भी हैं।

DOI link – https://doi.org/10.69758/GIMRJ/2412IVVXIIP0019

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