संजीव के ‘धार’ उपन्यास में आदिवासीसमाज का यथार्थ चित्रण

संजीव के धार उपन्यास में आदिवासी समाज का यथार्थ चित्रण

डॉ.आर.व्ही.पोपळघट

स्व.भा.शिं.कला.प्रा.ना.गा.विज्ञान एवं

आ.गा.वाणिज्य महाविद्यालय, साखरखेर्डा ता.सि.राजा जि.बुलढाणा

भ्रमनध्वनी क्र. ९७६५९१६८३१

rajupopalghat11@gmail.com

सारांश :

‘धार’ उपन्यास में संजीव ने अपनी लेखनी से आदिवासी सर्वहारा समाज हमारी व्यवस्था एवं पूंजीपतियों द्वारा किस प्रकार से शोषण का शिकार हो रहा है। इसका चित्र प्रस्तुत किया है।

‘संथाल’ यह आदिवासी समाज की एक जनजाति हैं। मैना के माध्यम से एक संघर्षशील नारी के व्यक्तित्व को दिखाया है। वह आखिर तक महेंद्रबाबू जैसे पूंतीपतियों और हमारी व्यवस्था के रक्षक कहे जानेवाले लोगों का मुकाबला करती है। उसे अविनाश शर्मा और मंगर का साथ मिलता है। लेखक ने हमारी व्यवस्था पर भी सवाल उठाया है। मैना के साथ जेल में जिसप्रकार का व्यवहार किया जाता हैं, वह हमारे जनतंत्र के लिए दाग हैं। रक्षक ही अगर भक्षक बन गए आम जनता मरौसा किस पर करे? मैना को अपने पिता और पति का साथ नहीं मिल पाता। इसी कमजोरी का दूसरे लोग फायदा उठाते हैं। पूँजीपति लोग मजदूरों का आर्थिक शोषण करते है। ये मजदूरों को चार-चार महिने तक काम के पैसे नहीं देते। उनसे जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। आदिवासी समाज में अंधिविश्वास, कुप्रथाएँ भी व्याप्त है। कोयलांचल, अनैतिक दुष्कर्म, फैक्टरी में काम करनेवाले मजदूरों का शोषण तंत्र, भ्रष्ट व्यवस्था आदि बातों को यहाँ दिखाया गया है। अंतःकह सकते है कि संजीव के ‘धार’ उपन्यास में ।

Key Word: दलित, पीडित, शोषित, आदिवासी, भ्रष्ट न्यायव्यवस्था, मजदूरों की समस्याँए.

DOI link – https://doi.org/10.69758/GIMRJ/25040401V13P0016

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